जहां मधुकर की तान चढ़ी थी,
भंवरों का नीतगान चढ़ा था,
जहां की रज में खेलकूद कर,
हम सबका सम्मान बढ़ा था,
जहां रोज़ हम शैतानी से,
जीवन की उस बचकानी से,
नित नए खेल को बुनते थे,
फिर उसे खेलकर लड़ते थे,
जहां की रज हमें याद दिलाती,
कच्ची सड़कें जहां हमें बताती,
दिनकर के संग लिए बैल को,
किसान जहां खेतों को जाते,
जहां हमारा भाव जुड़ा था,
सपनों का संसार जुड़ा था,
दादी की उस लोरी में भी,
दुनिया का कुछ ज्ञान छिपा था,
जहां किसी से बैर नहीं था,
जहां काम का सैर नहीं था,
जहां घरों में सीमा न थी,
खेल के लिए गलियां न थी,
चल आज वहां हम चलते हैं,
गांवों की तरफ हम बढ़ते हैं.....
Going to village after 6 month...
@vatsalyshyam